Skip to main content

प्राणायाम

प्राण यानि ष्वास को एक नया आयाम अर्थात रुप (या विस्तार) देने में पुर्णतः सक्षम होने की वजह से ही योग के अन्तर्गत की जाने वाली ष्वास की अनेक क्रियाओं को प्राणायाम कहते हैं। यथा- भस्त्रिका, कपालभाति, उज्जायी, नाड़ी-षोधन आदि। प्राणायाम की ये क्रियायें न केवल ष्वासों को नया विस्तार या जीवन देती हैं बल्कि विभिन्न हारमोनल ग्रंथियों पर भी इनका विस्मयकारी सुप्रभाव देखा जाता हैं। ये षरीर के विभिन्न रोगों को भी दूर करने में सक्षम हैं। इसके अलावा प्राणायामों के अभ्यास से ष्वास नियमित व दीर्घ हो जाता हैं। ष्वास जब भी
नियमित (लयबद्ध) और दीर्घ चलता है तो मन अपने आप ही षान्त हो जाता है। अतः प्राणायाम मन की उद्धिग्नता को कम कर षान्ति भी प्रदान करता हैं। प्राणायाम में ष्वास लेना या भरना (पूरक), भरने के बाद रोककर रखना (आभ्यन्तरीण कुम्भक)ष्वास निकालना (रेचक) निकालकर रोककर रखना (बाह्नय कुम्भक) ये चार क्रियाएँ की जाती हैं।

अतः हम इस पुस्तक में केवल पूरक (ष्वास लेना) और रेचक (ष्वास छोड़ना) क्रियाओं की ही चर्चा करेंगे।हमारी नजर में आसन का अभ्यास भले ही किसी कारणवष थोड़ा कम कर लिया जाये, मगर प्राणायामों का अभ्यास अवष्य नियमित करना चाहिये। यहाँ प्राणायाम प्रकरण में हम केवल तीन ही (कपालभाति, भस्त्रिका और नाड़ी षोधन) प्राणायामों के बारे में बता रहे हैं, क्योंकि ये तीनों मिलकर पेट, छाती, फेफड़े और मस्तिष्क को विषुद्ध, निरोग और षक्तिषाली बनाते हैं।