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Month: November 2020

नाड़ी षोधन ( अनुलोम विलोम)

इस प्रणायाम के अभ्यास से नाडियों का षुद्धिकरण होता हैं। अतः इसे नाड़ीषोधन कहते हैं।भस्त्रिका की तरह ही सीधे बैठकर, कोमलता से आँखें बंदकर, अंतर्मुखी हो जायें। ष्वासनिकालते हुये अपना दाहिना हाथ उठायें। ष्वास पूरी तरह निकालने के बाद दाहिने हाथ के अंगुठे कीे सहायता से दाहिना नासारंध्र बंद करें। बाॅये नासारंध्र से धीरे- धीरे ष्वास भरें। पूरी तरह ष्वास भरने के बाद अनामिका अंगुली की सहायता से बायीं नासिका (नासारंध्र) बंद करेंव दाँई नासिका से अंगुठा हटा लें। अब दाँई नासिका से ष्वास निकालें एवं पुनः भरें। वापस अंगुठे से दाहिना नासारंध्र बंद करें व बाँये नासारंध्र को खोलकर बाँये से ष्वास बाहर निकालें।

यह एक चक्र हो गया। इस प्रकार लगातार 5 से 10 चक्र करें। अन्तिम चक्र पूरा होने के बाद बाँई नासिका से ष्वास भरकर कम से कम 1 मि. तक विश्राम व आत्मनिरीक्षण करें। ष्वास सामान्य रखें। अगर नियमित अभ्यास कर रहे हों तो हर माह 3-4 चक्रों का अभ्यास बढा सकते हैं।

सावधानी (विषेष):

नासारंध्र बन्द करने हेतु अंगुठा व अनामिका अंगुली का दबाव नाक पर हल्का ही रखें। ष्वास भरने व निकालने की गति एक जैसी (इकसार) व इतनी धीमी रखें कि इसकी ध्वनि आपको भी न सुनाई दें। (गति के लिये व्यक्तिगत क्षमता का ध्यान रखकर कम ज्यादा कर सकते हैं।) आवष्यकता होने पर हाथ बदल सकते हैं। ष्वास निकालने (रेचक) में लगनेवाला समय, ष्वास भरने (पूरक) में लगने वाले समय, से ज्यादा हो तो अच्छा, बराबर भी हो सकता हैं, पर कम नहीं होना चाहिये। साथ ही हर बार पुरक का समय एक समान व रेचक का समय
भी एक समान रहना चाहिये। समय के माप के लिये मन ही मन गिनती गिन सकते हैं। हाथ की तर्जनी व मध्यका अंगुली मस्तक पर दोनों भौहों के बीच (टीका या बिन्दी लगाने के स्थान पर) रख कर, ध्यान भी वहीं केन्द्रित करें। प्राणायाम का लाभ प्रभुकृपा से कई गुणा बढ जायेगा। हठयोग में दाएं नथुने को पिंगला या सुर्य नाड़ी व बाँऐं नथुने को इड़ा या चंद्र नाड़ी कहा
गया हैं तदनुसार दायें नथुने से ष्वास भरना षरीर को उष्णता व बाँयें सेे ष्वास भरनाषीतलता प्रदान करता हैं। अतः जब षीतकाल में अभ्यास करें तो उपरोक्त अनुसार नहीं करके उक्त चक्रों की षुरुआत बायें नथुने से ष्वास भरने की जगह दांयें नथुने से ष्वासभरकर करें तो उत्तम हैं।

लाभ:

मतभिन्नता होते हुये भी ज्यादातर परंपराओं के मतानुसार छोटी-बड़ी कुल 72 हजार 800 नाडि़याँ होती हैं। उनमें से 10 नाडि़याँ प्रमुख होती हैं। इनमें भी इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना ये तीन नाडि़याँ अतिमहत्वपूर्ण हैं, जो कि मस्तिष्क से लेकर मलद्वार के पास तक आती हैं। नाड़ी-षोधन के नियमित अभ्यास से इन तीनों का षुद्धिकरण होकर इनमें षक्ति का संचार होने से मन में षान्ति का संचार, विचारों में स्पष्टता व एकाग्रता आती हैं। षरीर में आॅक्सीजन की मात्रा बढती हैं, अतः पूरे षरीर में षक्ति का संचार होता हैं।प्राणिक अवरोधों को दूर कर इड़ा व पिंगला में संतुलन लाता हैं। जिससे सुषुम्ना नाड़ी का प्रवाह प्रारम्भ हो जाता हैं, परिणामस्वरुप गहन ध्यान की अवस्था और आध्यात्मिक जागरण की प्राप्ति होती हैं।

भस्त्रिका

लुहार की धौंकनी की तरह वेग पुर्वक वायु भरने व निकालने की समानता के कारण यह नामकरण है। पùासन, अर्धपùासन या सुखासन (पालथी) में बैठ जायें। कमर, पीठ, गर्दन सीधी रखें मगर इनमें कोई अकड़ ना हो। दोनों हाथ घुटनों पर सामान्य स्थिति में रखें। आँखें कोमलता से बन्द कर लें और अन्तर्मुखी हो जायें। वेगपूर्वक ष्वास लेते हुये दोनों हाथों को धीरे-धीरे सिर से ऊपर उठायें। पूरी तरह (अधिकतम) ष्वास भरने के बाद हाथों को नीचे लाते हुये वेगपुर्वक ष्वास बाहर निकाल दें। पूरा ष्वास निकालने के बाद दोहरायें और लगातार 15 से 20 चक्र करें। अन्तिम चक्र में ज्यादा से ज्यादा ष्वास निकालकर 1 मि. तक विश्राम व आत्मनिरीक्षण करें। यह (विश्राम) अत्यन्त महत्वपूर्ण व आवष्यक हैं।

विषेष: दोनों हाथों को ऊपर-नीचे करने के क्रम में षरीर में अनावष्यक अकड़, झटका या हलचल नहीं हो। चेहरा सामान्य व तनाव-मुक्त रहे। ष्वास भरने व निकालने का समय बराबर रहना चाहिये। ष्वास ज्यादा से ज्यादा भरें व पूरी तरह निकालें। अपना पुरा ध्यान ष्वासों पर केन्द्रित रखें।

सावधानी:जिन व्यक्तियों को उच्च रक्तचाप, हृदय-रोग, हर्निया, गैस्ट्रिक अल्सर, मिर्गी रोग या चक्कर आने की समस्या है वे यह अभ्यास नहीं करें।

किसी-किसी नये साधक को षुरुआती दिनों में सिर में भारीपन या चक्कर का एहसास हो तो कुछ समय विश्राम करें, और कुछ दिनों तक ष्वास भरने व निकालने की गति धीमी या सामान्य रखकर अभ्यास करने के बाद धीरे-धीरे ष्वास की गति बढायें। अभ्यास नियमित व दृढ होने के साथ ही क्रमषः चक्रों की संख्या बढाते हुये अभ्यास को तीन मिनट तक बढायें।

लाभ:षरीर से विषाक्त तत्वों को दूर करता है व वात, पित्त व कफ तीनों से सम्बन्धित रोगों को दूर करता हैं। षरीर का चयापचय;डमजंइवसपेउद्ध बढाता हैं व रक्त में आॅक्सीजन की मात्रा बढाता हैं। पाचन संस्थान व फुफ्फसों को पुष्ट करता है, दमा, फेफड़े के रोग, गले के रोग व कफ की समस्या में अत्यन्त लाभकारी है। ध्यान की तैयारी में हायक है।

सर्वागांसन

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जैसा की नाम से ही स्पष्ट हैं षरीर के सारे अंगों को फायदा पहुँचाने वाला होने से ही इसका नाम सर्वागांसन हैं।

विधि:

सर्वप्रथम कम्बल या योगामैट पर पीठ के बल लेट जाएं, एड़ी और पंजों को मिला के रखें, हथेलियों का रूख जमीन की ओर रखते हुए षरीर से लगा कर रखें। ष्वास छोड़ते हुए दोनों घुटनों को मोडते हुए छाती पर रख दें। घुटनों को सीधा करते हुए पैरों को ऊपर उठा लंे एवं जमीन से एक 90व्म् का कोण बनाएं। हथेलियों का हल्का दबाव जमीन पर देते हुए धीर-धीरे नितम्ब कमर व पीठ को ऊपर उठाए और दोनों पैरो को भी और ऊपर तानते हुए सीधा करें। इस स्थिति में आपके कंधे से लेकर पैरों तक का भाग जमीन से लम्बवत हो जाएगा एवं षरीर का पुरा वजन आपके कंधांे पे आ जाएगा। कोहनियों से हाथों को मोड़ कर हथेलियों को कमर से लगा कर सहारा दें और पीठ को भी सीधा करने का प्रयास करें। इस स्थिति में आपकी ठुड्डी छाती से लग जाएगी। सीने को ज्यादा से ज्यादा चैड़ा करं,े ष्वास सामान्य रखें। इस स्थिति में 3-5 मिनट रूकें। विपरीत क्रम में धीरे- धीरे (बिना झटके के) वापस आएं और पीठ के बल सीधा लेट कर विश्राम करें।

सावधानी:

आसन की अन्तिम अवस्था में पहँुचने के बाद ध्यान रखें की गर्दन में किसी प्रकार का तनाव ना आए। सारा वजन कंधों व कोहनियों तक ही सीमित रखें। पैरों के पंजे सिर से आगे नहीं जाने चाहिए। जिनके गर्दन व पीठ में दर्द रहता है वो उपयुक्त गुरू की सलाह से ही करें।

लाभ:

  • अन्तःस्त्रावी ग्रंथियां सक्रिय होती हैं। अतः षरीर की हार्मोन की गड़बडियाँ ठीक होती हैं।
  • रक्त का सँचार विपरीत दिषा में होने से षरीर के सभी अंगों को फायदा मिलता हैं।
  • पुरूष व महिला दोनों के जननांगो से सम्बन्धित रोगों में विषेष लाभकारी है।
  • षरीर की कमजोरी को दूर कर, स्फुर्ति प्रदान करता हैं।
  • त्वचा रोगों में विषेष लाभकारी हैं। बच्चे के संपूर्ण षारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य का जिस प्रकार मां स्वास्थ्य का पोषण करती हैं, उसी प्रकार यह आसन संपूर्ण षरीर व मन को पोषित व व्यवस्थित रखता है। अतः सर्वांगासन को मां का दर्जा भी दिया जाता है।

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कपाल भाति

अर्थ-

कपाल का अर्थ हैं ललाट और भाति का अर्थ हैं चमकना अथार्थ कपाल भाति ललाट को चमकदार वाला अभ्यास हैं !

विधि-

सिद्ध पदम या अन्य ध्यानात्मक आसान में सीधे बैठ जाइये! इसमें पद्मासन उपयोगी रहता हैं छाती आगे की और उभरी हुई तथा स्थिर रहती हैं! हथेलियों और हाथो को सामान्य स्थिति में रखे! उदर को संकुचित रखते हुए श्वास को झटके से बहार फेंकिए ! जैसे लोहार की धौकनी को दबाने से उसमे सिथित वायु वेग से बहार निकलती हैं उसी तरह की क्रिया ये करनी हैं इस विधि में श्वास का बहार निकलना सक्रिय तथा भीतर लेना निष्क्रिय हैं केवल अंदर खीचने और श्वास को बाहर निकालने का
अभ्यास करना हैं ! श्वास बितर स्वत ही आ जाएगी!

सावधानिया-

प्रारम्भ में एक मिनट में 50-60 धक्के की गति से अभ्यास करना चैहिये इस के बाद इसे 120 तक बढ़या जा सकता हैं ! नए विध्यार्थी को 20 धक्के का चक्र कर के विश्राम करना चाइए! अंतिम चक्र में फेफड़ो को पूरी तरह खाली कर के विश्राम एवं आत्म निरिक्षण करना मेह्तवपूर्ण एवं आवश्यक हैं !

सीमाये-

रक्त चाप,हृद्य रोग, हाइपर टेंशन, चक्क्कर आना, हर्निया, रक्तचाप, ग्रेस्टिक अल्सर से पीड़ित व्यक्तियों का इसका अभ्यास नई करना चाइए ! गर्भवती महिलाओं के लिए अभ्यास वर्जित हैं! जिन्हे कमर दर्द की शिकयत हो उन्हें कपाल भाति का अब्याश सावधानी पूर्वक व धीरे धीरे करना उचित हैं सम्मान्ये व्यक्ति को कपाल भाति को अब्यास 3 से 5 मिनट तक करना चाइए! प्रारभ में करने में परेशानी हो तो अपने सामर्थ्ये के अनुसार करना चाइए जसे जसे पेट की मांसपेशिया लचीली व मजबूत होती चली जाये वसे वसे समाये बढ़ा देना चाइए !
श्वास को वेगपूर्वक बाहर निकालने (मुख मुद्रा सामान्ये रखते हुए ) पर लगाये! चेहरा सामान्ये रखे किसी प्रकार क्क तनाव या खिचाव ना आने दे!

लाभ-

इस क्रिया के निरंतर अभ्यास से माथे व चेहरे पर अलग ही तेज दिखाई देने लगता हैं! शरीर की रोध प्रतिरोधक समता बढ़ने लगती हैं! वात कफः पित को संतुलित रखती हैं! इससे पेट के समस्त अवयवो को अछा खिचाव व मसाज मिलता हैं जिससे पेट के समस्त अवयव जसे यकृत प्लीहा, पाचन ग्रंथि इत्यादि अपना काम सुचारू रूप से करने लगते हैं जिससे उदार की
मांसपेशिया क्रियाशीएल एवं शक्तिशाली बनने लगती हैं! यह डायबिटीज़ के सभी रोगियों के लिए लाभकारी हैं! यह पेट की अनावश्यक चर्बी को काम करने में थोड़ा बोहत मदद करता हैं
शारीरिक व मानसिक शमता का विकास होकर व्यक्ति प्रसन्ता का अनुभव करता हैं!

प्राणायाम

प्राण यानि ष्वास को एक नया आयाम अर्थात रुप (या विस्तार) देने में पुर्णतः सक्षम होने की वजह से ही योग के अन्तर्गत की जाने वाली ष्वास की अनेक क्रियाओं को प्राणायाम कहते हैं। यथा- भस्त्रिका, कपालभाति, उज्जायी, नाड़ी-षोधन आदि। प्राणायाम की ये क्रियायें न केवल ष्वासों को नया विस्तार या जीवन देती हैं बल्कि विभिन्न हारमोनल ग्रंथियों पर भी इनका विस्मयकारी सुप्रभाव देखा जाता हैं। ये षरीर के विभिन्न रोगों को भी दूर करने में सक्षम हैं। इसके अलावा प्राणायामों के अभ्यास से ष्वास नियमित व दीर्घ हो जाता हैं। ष्वास जब भी
नियमित (लयबद्ध) और दीर्घ चलता है तो मन अपने आप ही षान्त हो जाता है। अतः प्राणायाम मन की उद्धिग्नता को कम कर षान्ति भी प्रदान करता हैं। प्राणायाम में ष्वास लेना या भरना (पूरक), भरने के बाद रोककर रखना (आभ्यन्तरीण कुम्भक)ष्वास निकालना (रेचक) निकालकर रोककर रखना (बाह्नय कुम्भक) ये चार क्रियाएँ की जाती हैं।

अतः हम इस पुस्तक में केवल पूरक (ष्वास लेना) और रेचक (ष्वास छोड़ना) क्रियाओं की ही चर्चा करेंगे।हमारी नजर में आसन का अभ्यास भले ही किसी कारणवष थोड़ा कम कर लिया जाये, मगर प्राणायामों का अभ्यास अवष्य नियमित करना चाहिये। यहाँ प्राणायाम प्रकरण में हम केवल तीन ही (कपालभाति, भस्त्रिका और नाड़ी षोधन) प्राणायामों के बारे में बता रहे हैं, क्योंकि ये तीनों मिलकर पेट, छाती, फेफड़े और मस्तिष्क को विषुद्ध, निरोग और षक्तिषाली बनाते हैं।